Tuesday, October 18, 2011

कशिश

इस करवा चौथ पर बहुत कुछ कहना चाहती थी उनसे पर... दिल की बात आँखों तक ही रह गयी आप सब से बांटना चाहती हूँ शायद पसंद आये...




वो रौनक तेरे चेहरे की,
वो नज़ाकत तेरे लफ़्ज़ों की,
तमन्नाओं और आरज़ूओं में डूबी तेरे फ़लसफ़े की,
कशिश है तेरे जज़्बातों की...

वो आँखों में सादगी,
वो बातों में आग सी,
वो तीर सी मीठी मुस्कराहट,
कशिश है तेरे ख़्वाबों की...

वो चौड़ा सीना,
वो जिस्म मरस्स्म भीगा पसीना,
वो कलाईओं में दम,
कशिश है तेरे एहसास की...

वो डूबती हुई सोच,
वो कुछ पाने की खोज,
ज़माने को पाकीज़ा बनाने की चाह,
कशिश है तेरी फितरत की...

Tuesday, October 11, 2011

सामाजिक अपराध


साथियों, आज सुबह एक और घटना ने हतोत्साहित कर दिया उत्तर प्रदेश के लखीम पुर खेरी जिले में, निम्नवर्गीय ४५ वर्ष की महिला या और अच्छे से कहूं तो दलित महिला को चंद्वापुर गावं में नग्न करके घुमाया गया

राम प्यारी और उसके पति अपनी तलाकशुदा बेटी जयंती के साथ उत्तर प्रदेश में रहते थे जयंती अपने तलाक के दो वर्ष बाद मन्नू नाम के युवक के साथ, सामाजिक डर से भाग गई इस घटना पर गावं के एक "मान्य" दलित परिवार ने जयंती की माँ राम प्यारी को अगवा कर अपने घर रा भर प्रतिपादित किया और जब पूछने पर राम प्यारी ने कहा की उसे नहीं पता की उसकी बेटी कहाँ गयी है तो इस परिवार के मुखिया ने राम प्यारी को निवस्त्र कर पूरे गाँव में बेल्टों से मारते-मारते घुमाया ५०० की आबादी वाले इस गाँव में, एक की भी हिम्मत नहीं हुई की उस महिला को (जो की अधिकतर की माँ की उम्र की होंगी) सहायता कर प्रदान करसके या इस घटना का विरोध करे

हालाँकि SP अमित चन्द्रा ने इस घटना की पुष्टि की है और कहा है कि यह एक सोचा-समझा अपराध है, परन्तु प्रदेश कि पुलिस और उच्च ताकतें कितना सहयोग देती हैं यह देखना है मैं आपको बता दूं कि यह वही थाना है जहां कुछ ही दिन पहले एक युवती के साथ बलात्कार हुआ था और उसे जला कर मार देने कि कोशिश पुलिस ने ही कि थी अब आप अनुमान लगा ही सकते हैं कि राजनैतिक ताकतें/ या कोई भी और उच्च दबाव अपराधियों को किस सीमा तक सहयोग देती हैं, जो उनका मनोबल इतना अधिक है

इस घटना के कई सामाजिक पहलू हैं जिनके ख़िलाफ़ आम जनता को आवाज़ उठानी ही होगी, जैसे कि:-


क्या दलित होना आज भी अपराध है?
क्या सुखी ना रहने परभी एक महिला को यह अधिकार नहीं है कि वह तलाक ले?
क्या तलाक लेना किसी के लिए भी अपराध है, जबकि यह प्रावधान संविधानिक व न्यायिक रूप से अपने जीवन को बचाने और आत्मसम्मान से जीने के लिए है?
क्या तलाक जैसे मुद्दों में अपने बच्चों या परिवार का साथ देना ग़लत है?
क्या तलाक होने के बाद प्यार करना ग़लत है?
क्या एक तलाकशुदा महिला या पुरुष को सामजिक तौर से स्वीकार करना ग़लत है? जो उस युवक को अपना गाँव छोड़ कर भागना पड़ा
क्या बिना पुलिस और राजनैतिक सहयोग के इतने बड़े अपराध किये जा सकते हैं?
यदि हम अन्याय होता हुआ देखें तो कौन सी मजबूरी हमें उसका विरोध करने से रोकती है?
क्या हम सबका ज़मीर मर गया है?
अंतिम सवाल, क्या हम आज़ाद भारत के नागरिक है?

दोस्तों, मेरे ज़ेहन में इस घटना को लेकर उपरोक्त सवाल उठे हैं यदि आप भी अपना मत या विचार रखना चाहते हैं तो अपनी क़लम कि ताकत का उपयोग कीजिये!!!

Sunday, September 11, 2011

विकलांगता और समाज

अभी हाल ही में एक मित्र के ब्लॉग पर विकलांगता से जुड़े मुद्दे के बारे में पढ़ा था| वह उनके विवाह से सम्बंधित था| पोस्ट पढ़कर मन काफी आहात हुआ, लगा की जैसे यह समाज उनके प्रति कितना निष्ठुर हो गया है| हम सब राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय रूप से समाज के बारे में जब भी सोचते  हैं तो सामान्य दिखने वाले इंसान को ही नोर्मल या स्वस्थ व्यक्ति को ही उसका प्राथमिक हिस्सा मानते हैं| क्यूं??? ऐसा किसने कह दिया की यह दुनिया एक ही तरह के इंसानों के लिए बनी है, बाकी जो भी उस पारिभाषिक तरीके से व्यवहार नहीं करता वह सामान्य नहीं है? हम स्वास्थ (मानसिक और शारीरिक) को तो परिभाषित कर सकते हैं परन्तु सामान्यता या असामान्यता को ठोस रूप से नहीं|
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के अनुसार "विकलांगता  एक अवारित शब्द है, जिसमें हम  impairments, गतिविधि की सीमाओं, और भागीदारी प्रतिबंध को पैमाने के रूप में रखते हैं| 
Impairments हमारे शारीरिक संरचना में सुचारू रूप से काम करने में समस्या है;  
गतिविधि की सीमा एक व्यक्ति द्वारा एक कार्य या क्रिया निष्पादित करने में कठिनाई का सामना है,
जबकि एक भागीदारी प्रतिबंध जीवन की परिस्थितियों में एक व्यक्ति द्वारा अनुभव की  समस्या है.
इस प्रकार विकलांगता एक जटिल कार्यप्रणाली  है, जो एक व्यक्ति के शरीर की विशेषताओं और समाज में  जीवन-यापन की क्रिया को दर्शाती है
अब आप खुद ही अनुमान लगा सकते हैं कि द so  called able / normal व्यक्ति अपने जीवन को अच्छे से, ख़ुशी-ख़ुशी बिता रहा है या Disable व्यक्ति| तो हमें विकलांग व्यक्तियों से विवाह के बारे में क्यों नहीं सोचना चाहिए, जबकि उनमें से अधिकतर लोग कई नोर्मल लोगों से अधिक खुश हैं, संतुष्ट हैं, रोज़गार अच्छा है, सरकारी नौकरियों में हैं, कोई ऐब नहीं है, सुन्दर हैं, लालची नहीं हैं, क्रोधी नहीं हैं, सकारात्मक सोच से कार्य करते हैं, समाज में बड़े से बड़ा योगदान करते हैं... और हम???
 एक जागरूक समाज का हिस्सा होने के नाते हम सब को समाज के विभिन्न वर्गों को समझना  और स्वीकार करना होगा| यह वर्गीकरण सभी को सामान रूप से लाभान्वित करने और उस से सम्बंधित कानून बनाने के लिए किया गया है| हमें इसे discrimination के लिए इस्तेमाल नहीं करना चाहिए|

 जब आम नागरिकों के रूप में, विकलांग लोगों के भी समान अधिकार हैं, तो उन्हें अपने दैनिक जीवन में समाज के प्रति  पूर्ण भागीदारी करने के लिएलगातार संघर्ष अपवर्जन और प्रतिबंध का सामना क्यों करना पद रहा है| हमें उनके प्रति  भेदभाव, दुरुपयोग, और गरीबी में सहायक होना चाहिए ना कि बाधक| मैं आप सब से विकलांगता कि विभिन्न प्रकारों और डिग्री के बारे मैं बात नहीं करूंगी, वह हम सब जानते हैं; नहीं स्वीकारते तो मानसिक और शारीरक स्वास्थ में अंतर को!!!
सामान्य दिखने वाले सभी जन निश्चित तौर से स्वास्थ हैं यह ज़रूरी नहीं है|
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार "एक सामान्य मनोस्थिति जिसमें व्यक्ति को अपनी क्षमताओं का अनुभव हो, वह जीवनयापन सामान्य तनाव के साथ भली भांति, सकारात्मक रूप से, उत्त्पदाकता के लिए कर सके| यदि वह समाज में सकारात्मक योगदान कर रहा है, तो वह मानसिक रूप से स्वस्थ है|"
अब आप ही बताईये हम सभी सामान्य दिखने वाले व्यक्तियों  में से कितने स्वास्थ हैं??? हम सभी किसी न किसी परेशानी से झूझ रहे हैं चाहे वह गुस्सा, भय, प्रतिशोध, द्वेष  हो या dipression. तो क्या हम सभी किसी न किसी डिग्री कि विकलांगता में नहीं आते /वर्गीकृत करते?
मैं इस विषय में और लिखना चाहती हूँ, आपका सहयोग और विचार आगे का भाग तय करेंगे!!!

Friday, September 9, 2011

गुलाबों सा वो चेहरा


खिड़की में उगता गुलाबों सा वो चेहरा,
आँखों से ज़हन  में उतरता किताबों सा वो चेहरा,
नूरे-ए-चश्म  है हिजाबों सा वो चेहरा,
मेरा कातिल, मेरा दुश्मन... बेदर्द है वो चेहरा!!!

रौनक-ए-इल्म सा पशेमा है वो चेहरा,
नर्गिस-ए- बाग सा संजीदा है वो चेहरा,
फितरत-ए-कैफ़ सा दीवाना है वो चेहरा,
मेरे दिल-ए-गुलज़ार का अफसाना है वो चेहरा!

खिड़की में उगता गुलाबों सा वो चेहरा...

Tuesday, July 12, 2011

कविता कोश: भारतीय काव्य में जुड़ता नया आयाम

यह नाम हिंदी पाठकों  और साहित्य प्रेमियों के लिए नया नहीं है| यह इंटरनेट पर क्रांतिकारी रूप से उभरती हुई, स्वयंसेवी परियोजना है, जिसका उद्देश्य विश्व के अमूल्य काव्य साहित्य को संग्रहित करना, उसे जन-जन तक पहुँचाना और हिंदी साहित्य को इंटरनेट पर समुचित स्थान दिलाना है| इस वेबसाइट में न सिर्फ हिंदी काव्य अपितु उर्दू, प्रादेशिक भाषायें, विदेशी भाषायें, लोक-गीत, धार्मिक-लोक रचनायें एवं शाशवत काव्यों  के अनुवाद भी शामिल हैं| अब तो ऑडियो-वीडियो विभाग ने इसमें चार-चाँद लगा दिए हैं| आप दुनिया भर की भारतीय श्रेष्ठ रचनाएँ किसी भी रूप में पा सकते हैं, सिर्फ एक लिंक, एक क्लिक और काव्य जगत आपका... आप चाहें तो इसमें योगदान कर कविता कोश का हिस्सा भी बन सकते हैं|
 
कविता कोश के संस्थापक ललित कुमार जी, पेशे से सॉफ्टवेर इंजिनियर व तकनीकी विशेषज्ञ हैं| उन्होंने संयुक राष्ट्र संघ के साथ कार्य करते हुए ५ जुलाई, २००६ को कविता कोश की नीव राखी थी| जीव-विज्ञान, सूचना प्रोद्योगिकी और बायो इन्फोमैटिकस जैसे तकनीकी विषयों में उच्च शिक्षा अर्जित करने के बाद भी उनकी हिन्दी साहित्य और काव्य में रूचि ने उन्हें इस परियोजना का निर्माण करने के लिए बाध्य किया| जी हाँ, बाध्य इसलिए कहूँगी क्यूंकि उन्होंने कविता कोश के निर्माण से पहले कई वेबसाइटस, ब्लोग्स, पुस्तकालय और दुकानों में श्रेष्ठ काव्य पढने के लिए मेहनत की| उनकी हार्दिक अभिलाषा थी कि कोई एक ही वेबसाइट हो जिसमें समस्त श्रेष्ठ रचनायें संग्रहित हों और जब उन्हें यह नहीं मिला तो एक क्रन्तिकारी विचार कि:
जिसका अस्तित्व न हो उसे स्वयं ही अस्तित्व में लाना पड़ता है!
ही कविता कोश कि आधारशिला बना| ललितजी का वेब इंजिनियर होना कविता कोश कि स्थापना, प्रगति और तकनीकी श्रेष्ठता का स्त्रोत है|
 
ललित कुमार
ललित जी से मेरी पहचान आज से दो वर्ष पहले, हमारे ऑफिस में ही हुई थी| इसे में अपना सौभाग्य ही मानूंगी कि मुझे उनकी तकनीकी मार्ग्दार्शिता हमारे प्रोजेक्ट के लिए मिली| व्यक्तिगत रूप से वह काफी सुलझे हुए, सरल और सादे इंसान हैं| सकारात्मक सोच, मज़बूत इरादे और कड़ी मेहनत उनके तेज का परिचायक है| कम शब्दों में कहूं तो वह बरसने वाले बदल हैं, जो ढेर सारा ज्ञान जल; अपने आप में समाहित करते हैं और बंजर भूमि ढूँढ कर, उसे तृप्त करते हैं| उनकी ज्ञान वर्षा अब सुदृढ़ परियोजना का रूप ले चुकी है| अभी कुछ ही दिन पहले उनसे मुलाकात हुई तो उनका उपहार देख कर मेरी ख़ुशी का ठिकाना न रहा| उन्होंने मुझे कविता कोश परियोजना कि पुस्तक हस्ताक्षर सहित भेंट कि| कविता कोश वेबसाइट से तो मैं पहले ही प्रभावित हो चुकी हूँ लेकिन आज मैं आपको कविता कोश कि पुस्तक के बारे में बताना चाहती हूँ|
 
कविता कोश के संदर्भ में संस्मरणात्मक और निर्देशिका के रूप में यह पुस्तक ललितजी द्वारा लिखित उनके प्रयासों का उद्दगार है| कविता कोश प्रकाशन कि इस पुस्तक का प्रयोजन Sarai/FLOSSinclude  ने किया है| परिकल्पना और प्रस्तुति ललित कुमार (कविता कोश) और रविकांत (सराय) कि है| यह कविता कोश कि तरह ही रुचिकर, सुन्दर, सुवय्वस्थित और जानकारी का भंडार है| इसका मुख्य उद्देश्य कविता कोश के संघर्ष, समस्यां व उनके समाधान, विकास, विभिन्न विभागों, योगदान करता व योगदान कि विधि, आंकड़े, भविष्य का प्रारूप और कविता कोश कि विभिन्न कड़ियों के बारे में सविस्तार बताना है|
 
मेरे पसंदीदा सेक्शन कविता कोश का विकास, इंटरनेट पर हिन्दी और शाशवत काव्य हैं| सच कहों तो यह पुस्तक पढने से पहले मुझे एक परियोजना के प्रारूप और उसके विकास के  बारे में कोई भी ज्ञान नहीं था| इस पुस्तक कि सरल भाषा और सूचीबद्ध तरीके से लेखन क कारण ही मुझमें यह जागरूकता आई है| विज्ञान और सूचना प्रोद्योगिकी जैसे विषयों में शिक्षा और पेशे कि वजह से मेरी अधिकतम रूचि विकिया के माध्यम से कविता कोश का गठन और विकास के दौरान आयी समस्याओं वाले अध्याय में है| यह विषय ललितजी के पूरे संघर्ष और समाधानों का निचोड़ हैं|
 
मुझे इस पुस्तक द्वारा कविता कोश वेबसाइट के वह मुख्य लाभ और आकर्षण पता चले जो हजारों बार साईट देखने के बाद भी कभी ज़हन में नहीं आये, जैसे :
  • रचनाकार, पाठक और योगदान-कर्ता का सामान रूप से लाभ  
  • हिन्दी काव्य, उर्दू, व प्रादेशिक भाषाओँ  सहित विदेशी भाषाओँ का काव्य संगह
  • मिडियाविकी प्लेटफार्म पर आधारित वेबसाइट
  • यूनिकोड आधारित
  • तकनीकी रूप से सुध्रिड
  • ऑडियो व वीडियो विभाग
  • स्वयसेवी एव मुक्क्त परियोजना
यह पुस्तक कविता कोश परियोजना का सविस्तार परिचय और उसका दर्पण है| इसमें पाठकों  कि जागरूकता देखते हुए उनके सभी प्रश्नों के उत्तर और कविता कोश में योगदान के तरीके को संतोष-जनक रूप में बताया गया है| इस पुस्तक कि सबसे अनूठी बात मुझे यह लगी कि कविता कोश परियोजना कि स्थापना के पांच वर्ष बाद भी पाठक अपने आप को इसके सफ़र और संघर्ष का हिस्सा महसूस करते हैं और जो इससे अब तक नहीं जुड़ पाए वह सप्रेम कविता कोश में योगदान कि इच्छा रखते हैं|
 
५ जुलाई, २०११ को कविता कोश ने सफलता के ५ वर्ष पूरे करलिये हैं| मैं अभिलाषा करती हूँ कि भविष्य का कविता कोशऔर भी सुध्रिड एवं उपयोगी बने| कविता कोश टीम सहित ललितजी को इस क्रांतिकारी परियोजना के लिए हार्दिक बधाई!!!
 
इस संग्रहणीय पुस्तक को जानने के लिए आप कविता कोश प्रकाशन में संपर्क करसकते हैं|

Thursday, June 23, 2011

प्रिय पाठकों

प्रिय पाठकों,
आप सब परेशान हो रहे होंगे की मैं कहाँ व्यस्त हूँ इनदिनों,काफी प्रियजनों ने अनुमान भी लगा लिया होगा... माता जी का स्वर्गवास हो गया है! पिछले महीने १९ मई को उनका जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष समाप्त हुआ, और जीत उनकी ही हुई!!! आप सब सोच रहे होंगे कि जीवन स्वरुप धूप पर मृत्यु का कफ़न पड़ने के बाद भी कोई कैसे जीत सकता है| जैसा कि मैंने अपनी पोस्ट डर के आगे जीत है!!!    मैंने उल्लेख किया था, उनका संघर्ष अपने सारे फ़र्ज़ पूरे करने का था| यूं तो हमसभी को कभी न कभी जाना ही है, परन्तु बहुत से लोग इस जीवन को व्यर्थ नहीं जाने देते, हमेशा कुछ न कुछ योगदान समाज में देते रहते हैं या फिर यथासंभव प्रयास करते रहते हैं|  माँ के साथ यह सब और भी मुश्किल था चूँकि वह "सिंगल मदर" थीं|

हे भगवान! पहली बार उन्हें "थीं" लिखा मैंने...
सच में, सच को सुनना और सच को मान लेने में बहुत फर्क है| एक महीने से ज़यादा हो गया है उन्हें गए, लेकिन आज तक उनकी मौजूदगी का एहसास हमेशा रहता है| सफ़र करते वक़्त, खाते पीते, लिखते, फोन पर बात करते वक़्त, सुबह दिन शुरू करने से पहले और अक्सर सोने से पहले उनकी हर एक हरक़त, हरेक भाव, हरेक स्पर्श ज़ेहन में घूमता रहता है| पता नहीं क्यों रोना नहीं आता बस उन्हें याद करना और करते रहना अच्छा लगता है, फिर जब महसूस होने लगता है की अब उनतक पहुँच नहीं सकती तो आँखे नम हो आती हैं| पता है, उन्होंने ही मुझे प्रकति और विज्ञान को जोड़ना सिखाया था| हर एक चीज़ में वह तर्क ढूँढती थीं| ज्ञान की बहुत चाह थी उनमें, हमेशा खाना खाते वक़्त अखबार का कोई टुकड़ा या पत्रिका, या फिर कुछ भी नामिले तो हम लोगों की ही कोई पाठ्य पुस्तक उठा कर पढ़ती रहती थीं| कोई भी कागज़ उनके हाथ के नीचे से बिना पढ़े नहीं जाता था| गीतों का कोई  शौक नहीं था उन्हें पर फिल्में अक्सर पसंद करती थीं, शायद वह फिल्में उन्हें पिताजी के साथ बिताये कुछ लम्हे याद दिला देती थीं|

बहुत सादी थीं मेरी माँ, बिलकुल तस्वीरों जैसी थी, सुन्दर नाक-नक्श, लम्बा कद, कमर से नीचे काले-घने लम्बे बाल,  सुघड़, मुस्कान तो उनकी सबसे-सबसे-सबसे अच्छी थी| आंखें थोड़ी  छोटी थीं पर उनकी चमक उनके ढ़ेर सारे संस्कारों और मज़बूत व्यक्तिव  का परिचायक थी| बड़ी लाल बिंदी उनके व्यक्तिव को और निखार देती थी| बहुत सुन्दर, बिलकुल भारतीय नारी सी गरिमा थी उनकी| साड़ी बहुत भाती थी उन्हें पर पिताजी के बाद काफी कम करदिया था साड़ी पहनना उन्होंने| आधुनिता और भारतीयता का अच्छा संगम था उनके वक्तित्व में, आफ़िस में हमेशा नया सीखने की ललक थी उन्हें और लंच टाइम में वह और उनकी सह्कर्मियाँ एक दुसरे को भजन लिखवाती थीं| ऐसा कोई व्रत नहीं था जो उन्होंने न किया हो, और पूजा अर्चना में सदैव नियम रखती थीं, यहाँ तक की अपने निधन से कुछ दिन पहले जबतक वह चल फिर रही थीं, वह पुरानी दिल्ली, अपने गुरु महाराज की राम नवमी की संगत में भी हमसे लड़कर गयी थीं|
हर काम भगवान को समर्पित करदेना और हर काम उनके लिए करना उनके संस्कारों में से एक था| भोजन को सदैव प्रसाद समझ कर बनाना चाहिए और पहले निवाले से पहले भगवान् को "रोटी" के लिए आभार व्यक्त करना चाहिए मैंने उन्ही से सीखा है| हर माँ की तरह वह भी अपने दुःख बहुत कम बांटती थी, और ज़रुरत से ज्यादा प्यार देती थीं| अभी तक तो उनके लिए लिखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी और अब जब कहना शुरू किया है तो शब्द कम पड़ रहे हैं| देखिये ना, जो बात कह रही थी उसे छोड़ कर कहाँ तक आ गयी हूँ| लेखन भी भूल गयी हूँ शायद अब...

माँ की जीत इसलिए कह रही थी चूँकि उन्होंने अपने संघर्ष, बलिदान, त्याग, आशीर्वाद और ढ़ेर सारे प्रेम से पिताजी जी को दिया अपना आखरी फ़र्ज़ भी पूरा किया|
जी हाँ, आप सब की शुभकामनाओं और सप्रेम आशीर्वाद से हमने भाई की शादी करवा दी थी| उनकी मृत्यु से तीन दिन पहले ही विवाह संपन्न हुआ| वह विवाह में भाग तो नहीं ले पायीं परन्तु वरवधू को आशीर्वाद उन्होंने ICU में ही दिया था| इसबात की हमारे पूरे परिवार को तसल्ली है की शरीर त्यागने से पहले वह पूरी तरह से निश्चिन्त थीं|

मैं आपसब सहभागियों का आभार व्यक्त करती हूँ, जिन्होंने ब्लॉग जगत का हिस्सा होने के नाते मुझे और मेरे परिवार को कैंसर से संघर्ष के दिनों में हौसला बढाया| मन से निकली हर दुआ में ताक़त होती है, आप सबका प्यार इस बात का सबूत है| माँ की अंतिम  इच्छा को पूर्ण करवाने के लिए आपने जो शुभकामनायें, सहयोग और आशीर्वाद दिए, मैं उसके लिए नमन करती हूँ|

हार्दिक धन्यवाद!
कविता
  

Monday, May 9, 2011

सचेतावस्था और जीवन

साथियों, आज मैं आप के साथ गौतम के जीवन में घटित, अपनी सबसे पसंदीदा घटना बांटना चाहती हूँ| मैं गौतम बुद्ध को प्रायः गौतम या सिद्धार्थ कह कर ही संबोधित करती हूँ|
 
 
 
सदधर्म मार्ग की प्राप्ति के दूसरे ही दिन, गौतम ने गाँव के सारे बच्चों को मिलने बुलाया! सभी बच्चे तैयार हो कर, समय से ही पीपल के नीचे एकत्रित हो गए| सभी कुछ-न-कुछ खाद्य पदार्थ उपहार स्वरुप लाये थे! सुजाता नारियल और ताड़-गुड की बट्टियां, नन्द बाला और सुभाष टोकरी भर मिट्ठा, एक प्रकार का संतरे जैसा फल लाये थे| गौतम ने सभी उपहार सहर्ष स्वीकार करलिये और सभी बच्चों के साथ मिलकर खाने लगे| सुजाता ने बीच मैं ही उठ कर घोषणा की  " आज हमारे गुरुदेव को सम्बोधि प्राप्त हो गयी  है, उन्होंने सदधर्म का मार्ग खोज लिया है|" सभी बच्चों ने आदर और प्रेम पुर्वक नमन कर, सदधर्म की शिक्षा के लिए अनुरोध किया|
 
गौतम ने बड़े प्यार से बच्चों को बैठाया और कहा की सदधर्म का मार्ग बहुत गूढ़ और सूक्ष्म है, लेकिन जो भी इस ओर अपना चित्त लगाएगा वह इसे समझ सकताहै और इसपर चल सकता है| उन्होंने कहा " बच्चों जब  तुम मिट्ठा छील कर खाते हो तो सचेत अवस्था के साथ भी खा खसकते  हो और बिना जागरूक रहे भी| सचेत हो कर मिट्ठा खाने का अर्थ है कि, जब तुम इसे खाओ तो भली भांति समझो और महसूस करो कि तुम क्या खा रहे हो| उसकी गंध और स्वाद को पूरी तरह आत्मसात कर लो| उसका छिलका उतारो तो तुम्हारा पूरा ध्यान छिलका उतरने में हो और जब एक-एक फांक खाओ तब उसके रंग, गंध और मिठास तो पूरी तरह अनुभव करो, उसके पीछे के जीवन का अनुमान लगाओ| मैंने इसकी हर फांक को पुर्ण जागरूकता  के साथ खाया है और पाया है कि यह कितनी मूल्यवान तथा अदभुत वस्तु है| यह मिट्ठा मेरे लिए एक निश्चित सत्य बनगया है, मैं इसे आजीवन नहीं भूल सकता| सचेत हो कर मिट्ठा खाने का यही अर्थ है|"
 
दोस्तों, सचेत अवस्था में जीवन यापन करने का अर्थ ही है की "अपने चित्त और शरीर को एक साथ मिला कर वर्त्तमान में जिया जाये"|  इसके विपरीत जीना, अचेत अवस्था में जीना है, जिसमें हम जानते नहीं की हमारे आस पास क्या और कैसे घट रहा है, कई बार हम अतीत और भविष्य में इतना खो जाते हैं की वर्त्तमान को नज़र अंदाज़ करदेते हैं| सचेतावस्था में जी कर ही हम अपने जीवन को मूल्यवान और अर्थपूर्ण बना सकते हैं|

Sunday, May 1, 2011

डर के आगे जीत है!!!

विज्ञापन के यह शब्द माँ ने मुझसे उस प्रश्न के जवाब मैं दिए थे, जब दूसरे ओपरेशन के बाद वह ठीक होकर अपने कमरे मैं आ गयी थीं| मेरी दोनों हथेलियों  ही गर्माहट और आँखों की नमी की ठंडक एक माँ का मन  शायद पढ़ चुका था| आँखों में ख़ुशी के आंसू, माँ की घटित तकलीफ की बूंदों में मिल चुके थे... समझ नहीं पा रही थी, कि उनके लीवर के ओपरेशन कि सफलता में रोऊँ  या उनकी पीड़ा को महसूस करके चीख़ पडूँ|

"माँ", यह नाम अपने आप में प्रेम, त्याग और शक्ति का संबल है| हर माँ अपने बच्चों और परिवार के पालन पोषण के लिए अपना अस्तित्व भी दाव पर लगा देती है, परन्तु विधाता कुछ चुनिंदा  लोगों को सहिष्णुता की पराकाष्ठा मापने के लिए निर्धारित करता है| पिताजी के गुजरने के समय वह मात्र ३६ साल की गृहणी थीं, जो समय किसी भी महिला के जीवन मैं सुख और संतोष लिए हुए आता है
माँ  के लिए वह समय बलिदान, आत्मसम्मान, और कठोर परिश्रम लिए हुए आया|
गाँव में पली बढ़ी लड़की अब महानगर मैं कार्यरत महिला थीं|

समाज को मर्यादा में बाँधकर अपने परिवार का आत्मसम्मान कैसे ऊँचा रखा जाता है, माँ उसका जीता जगता उदहारण थीं|  एक तनख्वाह में ३ बच्चों का पालन-पोषण और सामाजिक रिवाजों को वहन करना उन्होंने बखूबी सीख लिया था| अब जब हम सब बड़े हो गए और समाज में अपना स्थान बनालिया तो माँ को लगा की अब शायद दिन फिर जायेंगे... परन्तु नियति को शायद अभी उन्हें और तपा कर सोने से पारस  बनाना था| २००९ में उन्हें कैंसर हो गया| ४९ साल में ही मानो हम सब के लिए प्रलय आगई थी| बहुत अजीब हालत थी सब की,  हम चेहरों  पर मुस्कान और उम्मीद लिए हुए उनका सामना करते थे, परन्तु कहते हैं ना की एक माँ का ह्रदय बच्चों की धड़कने भी पढ़ लेता है, ऐसे ही वह भी हमारे दर्द को पहचान कर हमें संबल देतीं और हमेशा अपने आप में विशवास बनाये रखने को कहती थीं| वह पूरे  विशवास  से  हमें  कहती  थीं  की 
"जब  तक  डरते  रहोगे  जीत  नहीं पाओगे, डर को भूल कर देखो ज़यादा से ज़यादा क्या होगा..." वह वीरांगना विजयी हुई और २०१० मार्च में कीमो और RT की पीड़ा से उन्होंने अपने शरीर और हमारे मन को मुक्त करा लिया|
कई महीनों तक हम विजेता की भांति समाज में फैल रहे कैंसर के अंधविश्वासों को भेदते रहे, पता ही न चला की कैंसर का वह दैत्य कब फिर घर कर गया, मेरे और इनके बौद्ध धर्म अपनाने का कारण और कारक, धीरे-धीरे साफ़ होने लगा था| इस बार मम्मी कमज़ोर पड़ रही हैं और मेरा विशवास अपने चरम पर है| डॉक्टर ने इलाज एक तरह से बंद ही कर दिया है, कहते हैं की "अब कुछ करने की गुन्जायिश ही नहीं रही... चंद दिन बचे हैं, ज़यादा हाथ-पैर मत मारिये, परेशानी  आप ही को होगी"|
अब मुझे  डर नहीं लग रहा, सिर्फ कर्म करने की इच्छा है की किसी तरह भाई की शादी माँ के हाथ से करा सकूं... वोह माँ जो इस उम्मीद  में मौत की चौखट तक पहुँच गई की एक बार अपने सब बच्चों को दुनियादारी में सफल देख सकूं| खुद के लिए कभी कोई रंग नहीं चाहा सिर्फ सफ़ेद रंग में ही दुनिया बसा ली| अपने हालातों से कभी समझौता न करने वाली मेरी माँ आज जीवन-मृत्यु के गोरख धनंदे में से जीवन के कुछ पल जीतना चाहती हैं, हॉस्पिटल के दर्द में बच्चों के सपनों को पूरा करना चाहती हैं| अपने आखरी क्षणों में भी लड़ रही हैं वह, मानो कह रही हो कि मैं  अपनी झाँसी नहीं दूँगी|
आज प्रभु से यह ही कामना है की अपने समय-चक्र को थोडा सा धीरे करदे और अपने अनमोल बच्चों की आकांशाओं को पूरा करने का साहस दे| जीवन भर जिसे सुख के लिए तरसा दिया उसे मौत के वक्त मुस्कान और संतोष दे| ज़िन्दगी की रेत से जिस सोने को रगड़ कर पारस बना दिया उसे दूसरों  की ज़िन्दगी रौशन  करने का मौका तो दे|
हे ईश्वर मेरी माँ को स्वस्थ ज़िन्दगी दे!!!

Tuesday, April 19, 2011

यादें



कल शाम मेरी अज़ीज़ ने मुझे एक रचना मेल की, बाकि कुछ नहीं कहा उसने... सिर्फ लिखा था "कविता पढो ज़रा" :] मुझे बिलकुल उम्मीद नहीं थी कि उसके बाकि गुणों में से एक कविता लेखन भी है| जैसे-जैसे पढ़ती गयी, मेरी मुस्कान उसके आसुओं से सिकुड़ती जा रही थी, कुछ वक़्त  पहले उसने कुछ दर्द बँटा तो था, पर जैसे की उसकी फितरत है, वह सिर्फ और सिर्फ खनखनाती हुई अपनी हंसी बाँटती है बाकि बचे अपने ग़म, अपने ही आँचल में बाँधे रहती है|
दोस्तों आज की यह पोस्ट मेरी प्रिय मित्र "ऋचा" ने लिखी है, उसके द्वारा लिखी यह पहली पोस्ट है|

हिचकियों से एक बात का पता चलता है,
कि कोई हमें याद तो करता है, बात न करे तो क्या हुआ,
कोई आज भी हम पर कुछ लम्हे बरबाद तो करता है
ज़िंदगी हमेशा पाने के लिए नही होती, हर बात समझाने के लिए नही होती,
याद तो अक्सर आती है आप की,
लकिन हर याद जताने के लिए नही होती महफिल न सही तन्हाई तो मिलती है,
मिलन न सही जुदाई तो मिलती है,
कौन कहता है मोहब्बत में कुछ नही मिलता,
वफ़ा न सही बेवफाई तो मिलती है
कितनी जल्दी ये मुलाक़ात गुज़र जाती है
प्यास बुझती नही, बरसात गुज़र जाती है
अपनी यादों से कहो यहाँ ही  आया न करे
नींद आती ही नही , रात गुज़र जाती है  !
उम्र की राह मे ,रस्ते भी बदल जाते हैं,
वक्त की आंधी में, इन्सान बदल जाते हैं,
सोचते हैं कि तुम्हें याद इतना भी न करें,
याद ऐसी, कि सारी रात गुजर जाती है !
लेकिन आंखें बंद करते ही इरादे बदल जाते हैं कभी कभी दिल उदास होता है
हल्का हल्का सा आँखों को एहसास होता है छलकती है मेरी भी आँखों से नमी
जब तुम्हारे दूर होने का एहसास होता है|

Friday, April 8, 2011

राष्ट्रभक्ति


"हम वर्ल्ड कप जीत जाये", "हमारा भारत जीत गया", "भारत की विजय गाथा", "टीम इंडिया ने भारत को गौरान्वित किया"... यह सब और इनके जैसे सैकड़ो हेड लेंस ने, हमें गौरान्वित किया, हमें हर्षौल्लाहित किया, हममे से कई लोग रो भी पड़े थे, खूब नाचे-गाये और हर भारतीय ने अपने-अपने तरीके से अपना उत्साह और ख़ुशी ज़ाहिर की, आज भी कर रहे हैं| वह सब भाव सच्चे थे, हम सभी का अपने देश, अपने राष्ट्र, अपने भारत के प्रति प्रेम और गर्व था; पर ना  जाने  क्यों  मेरे मन  से दोपहर की घटना नहीं निकल पा रही थी, मैं इतनी बड़ी ख़ुशी में भी कई प्रश्नचिन्हों को अपने आस-पास मंडराते हुए देख रही थी|

सोच रही थी की सब लोग खुश हैं तो इस गंभीर विषय को कोई सुनेगाभी या बस यों ही लापरवाही में उड़ा देंगे? आप सब लोगों का मन नहीं ख़राब करना चाहती थी इसी लिए पोस्ट लिखने में इतने दिन लगा दिए...

बात शनिवार की है, सुबह से ही मैं, भाई और मामाजी हॉस्पिटल में, डॉ. से मिलने का इंतज़ार कर रहे थे| समय निर्धारित होने के बावजूद हमें दोपहर तक इंतजार करना पड़ा| खैर, वक्त गुज़र रहा था और हॉस्पिटल में भीड़ बढ़ रही थी| राजीव गाँधी में हर एक माले पर संयुक्त बैठक है, और बड़ी-बड़ी टीवी स्क्रीन पर लोग कभी समाचार तो कभी हालत का जायजा लेते नज़र आते हैं| उस दिन सभी लोग बेसब्री से मैच शुरू होने का इंतज़ार कर रहे थे, मैं लॉबी की बजाये डॉ के कमरे के बाहर ही बैठी थी... मैच शुरू हुआ, मारे ख़ुशी के मैं फटाफट बाहर आई; उस समय राष्ट्र-गान चल रहा था, मैं भी रुक कर गाने लगी... राष्ट्र-गान ख़त्म हुआ, जब निगाह स्क्रीन से हटी तो देख कर आहात हो गई कि एक भी सज्जन ना तो खड़ा ही हुआ था और ना ही किसी ने राष्ट्रगान गाया| सब के सब मुझे देख रहे थे, मानो मैंने कोई अपराध कर दिया हो... हद तो तब हो गई जब मेरा भाई भी बैठा रहा और जब मैं उसके पास जा कर बैठी तो मुझे डांटते  हुए बोला कि "तू ज़यादा देशभक्त है क्या? क्या ज़रूरत थी खड़े होने कि???"

इसके बाद मुझे काटो तो खून नहीं, समझ नहीं आ रहा था कि, किस किस से जा कर पूछूँ देशभक्ति  का अर्थ? क्यों कोई भी खड़ा नहीं हुआ था? उन सब को किसबात से शर्मिंदगी थी? अपने आप से या अपने देश से?

आप ही बताईये कि क्या हमारे राष्ट्र ने हमें इतना भी उत्साह और प्रेम नहीं दिया जिसके बदले में हम उसे सम्मान दे सकें? गर्व से राष्ट्र-गान गा सकें? जब कप जीत लिया तो दिल खोल के देशप्रेम ज़ाहिर किया, और रोज़? क्या हम अपने देश को हर रोज़ सम्मान नहीं दे सकते? क्या हमें स्वतंत्रता और गणतंत्र दिवस का ही इंतज़ार करना चाहिए? या फिर वर्ल्ड कप और कॉम्मनवेअल्थ जीतने का?

Thursday, March 31, 2011

रिश्ते



दोस्तों, हमारी ज़िन्दगी में हम कई रिश्तों को एक साथ जीते हैं... माँ और बेटी का रिश्ता, पिता और उनके ना होने पर भी उन्हें जीने का रिश्ता| दादी का दुलार, दादा की उँगलियों के बीच अपने आपको सबसे सुरक्षित महसूस करने का रिश्ता| चाचा और बुआ का मुझे गोद मैं उठाने के लिए अपने सब अज़ीज़ दोस्तों से झगड़ने का रिश्ता| चाची का कोमल स्नेह और फूफाजी जी के ढ़ेर सरे तोहफों के बीच अपने आप को अनमोल महसूस करने का रिश्ता| नानी के ढेर सरे पकवान और नाना जी के गणित में डूबे सवालों का रिश्ता| अपने तेराह भाईओं के बीच राजकुमारी सा महसूस करने का रिश्ता| अपने बहनों के बीच आदर्श व्यक्तित्व महसूस करने का रिश्ता| अपनी ज़िन्दगी के प्यार और उसे पाने का रिश्ता| शादी के अमिट बंधन में अपनी आत्मा को जोड़ने का रिश्ता... पर इन सभी रिश्तों को जीने के लिए हम सभी अपनी-अपनी इच्छायें और भावों को दफ़न कर देतें हैं, और फिर अपनी आत्मा से कहतें हैं...                       
                                         
ज़िन्दगी के तूफानों में, दफ़न हैं राज़ कई,            
कुछ तेरे- कुछ मेरे...                                                          
कामयाबी के रास्तों के हैं आगाज़ कई,
कुछ तेरे- कुछ मेरे...
रुसवाइओं  के पेड़ से झड़ने लगे हैं पत्ते कई,
कुछ तेरे- कुछ मेरे...
हवाओं में तैरते हैं, खुशबों के रंग कई,
कुछ तेरे- कुछ मेरे...
आसमान  चीर कर, यह ज़मीं  हुई है गीली... बिखरे हुए हैं अरमान कई,
कुछ तेरे- कुछ मेरे...


क्या वाकई में, हमारे लिए यह रिश्ते इतने लाज़मी हैं?
हाँ... यह सभी हमें इंसान बनाते हैं, ज़िन्दगी का एहसास करते हैं| कभी मीठी यादें बनाते हैं, कभी ज़हर के घूँट बन जाते हैं| रिश्ते ही हैं, जो ज़िन्दगी के पन्नों को पलटने के लिए हाथ बन जाते हैं, उस किताब में लिखा हुआ हर लफ्ज़ अपने ज़ेहन में उतरने के लिए आखें  भी दे जाते हैं| ज़िन्दगी को कभी महसूस किया है आपने... कैसे वोह हमारे जन्म के साथ ही पैदा होती है और कैसे मौत के सिरहाने बैठते ही, अपना आँचल समेटने लगती है|   इंसान गुनगुनाता हुआ, मुस्कुराता हुआ, आंखें पोंछ कर गा रहा है कुछ इस तरह...

होश न रहा, ढूँढता ही फिरा,
ऐ-ज़िन्दगी, तुझे पूजता ही रहा,
कतरा-कतरा बहती तू,
तुझे, तुझसे बटोरता ही रहा,
फूलों सी जन्मी थी तू,
मेरी आत्मा का बिम्ब लिए,
हर क्षण अपनी माँ की आँखों में,
तुझे देखता ही रहा...


रिश्ते, चाहे बने बनायें मिले हों, या हमारे अपने प्यार की सलोनी सौगात हों... हमेशा हमें जिंदा रहने का और इस खूबसूरत ज़िन्दगी को जी-भरके जीने का मार्ग दिखाते हैं| अपने रिश्तों हो सहेज कर रखिये दोस्तों, यह सभी अनमोल हैं...

Friday, March 25, 2011

गुलमोहर


मेरे आंगन में एक गुलमोहर लगा दो...
जिस से बातें करते-करते , वक़्त के हर लम्हे को मैं चुरा लूं,
शाम-सवेरे एक टक देखूं, जिसके दरश से मैं किस्सा बना लूं,
मेरे आंगन में एक गुलमोहर लगा दो...

गीले-गीले मौसम मैं फिर, जिसके रंग में, मैं तन यह रंगालूँ,
हंसती-गिरती पंखुड़ियों से मैं, अपना घर-बार सजा लूं,
मेरे आंगन में एक गुलमोहर लगा दो...

भोर की लालिमा में उगते, गुमोहर में, मैं रवि का भ्रम ना कहीं पा लूं,
चेहचाहती हुई चिड़िया जब बैठे उस पर, तो बसंत गीत मैं उस संग गा लूं,
मेरे आंगन में एक गुलमोहर लगा दो...

भरी दोपहरी वह पंख झेलता, उस के चरणों में बैठी मैं, ज़िन्दगी से राहत पा लूं ,
अपनी नारंगी कलियों का जो करे बिछोना, उस संग कैसे ना प्रीत लगा लूं,
मेरे आंगन में एक गुलमोहर लगा दो...

कुछ लाल, कुछ गुलाबी, कुछ नारंगी सपने, उसके फूलों जैसे बना लूं,
लगे सूखने जब पत्ते वह भूरे, उनको अपनी याद बना किताबून के बीच बसालूँ,
मेरे आंगन में एक गुलमोहर लगा दो...

बहार लाऊं मैं फिर से उसपर, उसके संग एक उम्र बिता लूं,
झूमे  गुलमोहर, तो थिरकूँ मैं भी, उसकी ताल में ताल मिला लूं,
मेरे आंगन में एक गुलमोहर लगा दो...

Thursday, March 17, 2011

बसंत उत्सव


बसंत उत्सव चल रहा  है और हम सभी अपनी-अपनी भावनाओं के द्वारा  पूरी तरह प्रकृति से, प्रकृति में, प्रकृति के लिए समर्पित हैं! कोई रंगों की बात कर रहा है, कोई त्योहारों की, कोई कविता, गीत-संगीत और भावों  की बात कर रहा है, कोई त्रासदी के अनुभव सुना रहा है तो  कोई सामाजिक मूल्यों और उनके हम पर प्रभाव की; पर जरा सोचिये इन सब अभिव्यक्तिओं  में क्या एक चीज़ उजागर हो रही है?
जी हाँ, वह प्रकृति है! आज हम सिर्फ हरियाली और जीव जंतुओं के बारे में बात नहीं करेंगे... आपका सहयोग रहा तो आज चर्चा करते हैं हमारे  मन या फिर यों कहिये कि प्रकृति कि सबसे छोटी इकाईओं में से एक कम्पन या vibration और उससे हमारे रिश्ते की! (दो अणुओं का परस्पर मिलन, कम्पन पैदा करता है और दो कम्पन परस्पर मिल कर गति बनाते हैं, ध्वनी और प्रकाश दोनों को गति के लिए माध्यम चाहिए होता है)
मन इसलिए कहा क्योंकि यह सारा खेल एहसासों का है! हमें जब भी कोई कहता है की महसूस करो... तो हम झट से आंखें बंद करलेते हैं और तरह-तरह के स्पंदन या कम्पन को पहचानने की कोशिश करते हैं! दरअसल प्रकृति एक एसा सच है जो हर वक़्त हमारे साथ रहता है परन्तु हमारे ही पास ही समय थोडा कम होता है उसे अनुभव करने का! हमारे  आस-पास कई प्रकार के अदृश्य बल इन सब कम्पनों या यों कहिये की जीवन शक्ति को चलते हैं, हम सभी के लिए आँखों देखा और कानों सुना अनुभव ही ज्यादा सच होता है... परन्तु आंखें बंद कर के महसूस किया प्रकृति का स्पर्श ज्यादा बेहतर मार्गदर्शक होता है; चाहे वोह जानवरों  द्वारा मुह उठाकर, आंखें बंद कर बारिश के आने का अनुमान हो या फिर किसीभी प्रकृति तरल-कुम्भ में भूकंप के आने की चेतावनी!
चलिए समझने की कोशिश करते हैं की कैसे कम्पन, ध्वनी और तरंगे हमारे मन-मस्तिष पर प्रबाव डालती हैं! हमारा प्रभामंडल, सबसे पहले प्रभावित होने और करने की क्षमता रखता है, जिसे हम अपने विचारों, शब्दों, तरंगों, आवाज़, आपकी मुस्कराहट और सबसे बड़ी बात अपनी प्रतिक्रिया से बनाते हैं! यदि  हमारी आवाज़ में मीठा-पन है, आखों में स्नेह है और चेहरे पर मुस्कान तो स्वतः ही सुनने वाले के मस्तिक्ष में हम घर कर लेते हैं! हमारा हर कण- सारी कोशिकायें, तंतु, डीएनए, हर जीन अपनी ही सिमित धुन में हिलोरे भरता है! यहाँ तक की हमारा कोशिका तंत्र भी सुरों में बातें करता और सन्देश भेजता है! किसी भी जंतु को हमारा प्रेमपूर्ण स्पर्श शांत कर देता है, अच्छे स्वरों को सुनकर मन प्रसन्न हो जाता है (फिर तो जी आप जो चाहे मनवा लीजिये पतिदेव से). कुल मिला कर कहें तो अच्छे और प्रेमपूर्ण  भाव हमारी शारीरिक उर्जाओं को जागृत कर, हमारे  हर काम को सकारात्मक सोच  और दिशा की ओर अग्रसर करते हैं!
आधुनिक विज्ञानं हो या प्राचीन अंतर्ज्ञान, दोनों ही इस बात पर एकमत होते हैं की ब्रह्मांडीय संवाद (cosmic dialogue ) कम्पन की भाषा से ही होते हैं! हम चाहे ओहम, नम मयो हो रेंगे क्यो, या अल्लाह उच्चरित करें या फिर कोई घंटी/वाधयंत्र बजायें यही माध्यम बनता है उस शक्ति पुंज तक पहुचने का ( भीतर और बाहर, चहुँ ओर). हमारा अपने पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem ) से भी संवाद इन्ही नन्हे जादूगरों कम्पन के कणों द्वारा ही होता है... पत्तों की सरसराहट, बारिश की रिमझिम, गीली मिटटी की खुशबु, तोफानों की गरज, माँ की लोरी, पिता का स्पर्श, बहन की मुस्कान, दोस्तों  के ठहाके, सचिन की सेंचुरी, नदी की कलकल, केसरी की दहाड़... J.C.Bose ने भी अपने ध्वनी और तरंगो पर काफी परिणाम दिए हैं! कितना कहूं सब कम है प्रकृति के समक्ष!
तो तो तो सार यह है की हम सभी की प्रकृति का सम्मान करते हुए, सकारात्मक सोच के साथ हर क्षण यह सोचना चाहिए की हम अपने पर्यावरण को कम्पन के खेल में क्या प्रदान कर रहें हैं! यकीन मानिये आप सब प्रकृति की ज़रूरत हैं...

Wednesday, March 16, 2011

एक चेहरा


सीने में बसर करता है, एक  चेहरा,
मासूम सा, मेरा अपना सा, मेरे ही अक्स जैसा...

थोडा नटखट,थोडा नमकीन,
मीठी-मीठी बातें करता, खट्टे मीठे ज़िक्रे कहता,
कभी शायरी के समंदर सा गहरे.. आंसुओ से नीले शब्द बुनता,
कभी पंछियों की तरह ऊँचे सुर पकड़ता,
एक चेहरा मेरा अपना सा...

हवाओं सा नाचता गाता,
तो कभी तूफानों सा बरस पड़ता ,
चंचला सी चमक लिए आखों में ,
सैकड़ों दिल अपने बालों  में लटकाए घूमता,
एक चेहरा मेरा अपना सा...

बच्चों की सी ज़िद करता,
रूठ जाता, बिखर जाता, और मिलने पर मासूम मुस्कान दे जाता,
बुजुर्गों की सी, ज़िन्दगी के लिए समझ रखता,
हर घूँट में पिया ज़िन्दगी का ज़हर... नीलकंठ सा  रोके रहता ,
एक चेहरा मेरा अपना सा...

हर  रोज़  ज़िन्दगी जीने के सपने देखता,
हर शाम उन्हें समेट कर, सिरहाना बना  कर  सो  जाता ,
एक शावक सा निश्छल... प्यार देने और पाने के लिए,
रोज़ जीता, रोज़ पोटली भर के खुशियाँ बांटता,
एक चेहरा मेरा अपना सा...

दोस्तों के लिए... आख़री हद तक लड़ता हुआ,
झूमता-गाता बादल का टुकड़ा है  वो ,
घर के लिए फलों  सा  मीठा मज़बूत पेड़ है वो,
अपने प्यार   लिये... सारा  जहां  है वो,
और अपने लिये???... जैसे हर नमाज़ के  बाद  दुआ  मांगना  भूल  जाता,
एक चेहरा मेरा अपना सा...

चांदनी रात सा शीतल ,
रजनी गंधा सी  साँसों सा, अपने जादू भरे हाथों से सहलाता ,
घायल दुनिया के, ज़ख्म भरने की  भरपूर कोशिश करता ,
सीने में जोश और पहाड़ों सी उचाइयां लिए ,
एक चेहरा मेरा अपना सा...

Tuesday, March 15, 2011

मेरे रंग...

मेरे एहसासों के पन्नों पर आज दूसरा रंग प्रेम और उसकी तड़प का है, मैं कवित्री तो नहीं हूँ परन्तु भावों को रंगों का जामा पहनाने का प्रयास किया है...


क्या करूँ इन काली आखों का,
यह उनकी आखों में अपना अक्स जो नहीं देख सकतीं,            

नाकाम हैं यह गुलाबी लब,
जो अपना निशाँ उनके लबों पर नहीं बना पाये,

यह सफ़ेद मुस्कराहट उदास है,
अगर उनके लौटते कदमों को  रोक ना  पाये,

तरसती हैं यह नारंगी हथेलियाँ उस नाम को,
देखो, हिना का रंग; बेरंग हो आया है,

पीली धूप सा उजाला मुजस्मा,
छाया ही है गर  वो  उनके आगोश  में  नहीं समा जाता ,

नीली-हरी रगों में सफ़र करता हुआ मेरा सुर्ख खून,
बहा दो गंगा में, गर वो उनके खून को पनाह ना दे सके!

Monday, March 7, 2011

कामायनी

मुझसे अक्क्सर मेरे अज़ीज़ कहते हैं की हमें अपने उड़ते हुए एहसासों को पन्नों पर उतार लेना चाहिए, लेकिन कभी लगा ही नहीं की हिंदी पर मेरी पकड़ इतनी है की एक ब्लॉग शुरू कर सकूँ, सिर्फ अपने एहसासों  को व्यक्त  करना जानती हूँ!
आज इस ब्लॉग को बनाने का कारण भी मेरे उलझे हुए एहसास हैं! कुछ प्यार से भरी यादें हैं और कुछ विरह की कराहें हैं! कुछ आने वाले कल के सपने हैं, तो कुछ आरती की घंटियों से बंधी दुआयें... कल मेरी अज़ीज़ बहिन, और उससे भी ज़यादा करीब दोस्त कामायनी, ग्रहस्त जीवन में प्रवेश कर चकी है!
यह पोस्ट उसी से जुड़े अरमानों और कभी न टूटने वाले धागों की झलक है!
सबसे पहले उसकी बिदाई का ही मंज़र सामने आ रहा है, तो उसी परेशान, फिक्रमंद, उदास, लाचार, समझदार और गोल-भूरी आँखों के नाम ही मेरा पहला पैग़ाम...



नहीं है वक़्त इन उदास आखों के लिए गुड़िया,
इन आखों में पिया के रंग भर ले,
सजा दे अपने आसमान को नयी अज़ानों से,
दुआ मांगो की... रवि सा रौशन तेरा यह नया रिश्ता सुनहरा हो,
तू महकाए अपने घर-आंगन को गुलाबों सा,
हर रात दिवाली पूजे तू, और हरे दिन होली का पर्व ये तेरा हो,
अपने कुल-वृक्ष को दे तू, नयी कोपलों का उपहार,
हर शाख़ पर, स्वाथ्य हर पत्तों और सुन्दर फलों का बसेरा हो!
नहीं है वक़्त इन उदास आखों के लिए गुड़िया...

वह सबसे गले मिलती हुई, कभी रोती हुई तो कभी आसूं पोंछती हुई बढ़ रही थी, अपनी नयी मंजिल और पुराने रिश्तों को आँचल में समेटती हुई... कतरा- कतरा बिखरती हुई, तो कभी अपने आप को संभालती हुई चली जा रही थ! मैं, ना जाने किस अनजान डर से, उससे नजरें चुरा रही थी, डर था की कहीं उसके साथ रोते-रोते बह ना जाऊं, फिर कभी लगता था की हमेशा उसे संबल देने वाली बड़ी दीदी कहीं, कमज़ोर ना साबित हो जाये. इस लिए कभी बाउजी के साथ किताबें लिए तो कभी छोटी बहनों को संभालते और बहलाते हुए अपने आप से छिप रही थी! मेरी कनु मुझसे बिना बिदा लिए ही चली गयी... हमेशा की तराह उसे लगा होगा की दीदी बहुत मज़बूत है, अपने साथ-साथ बाकि घर वालों का भी ख़याल रख लेंगी! कनु, तू समझ भी ना पाई की मैं तेरे बिना कितनी अकेली पड़ गयी हूँ, यह तक नहीं पता चला की कौन सा हिस्सा अलग हुआ है...
सिर्फ पाषण का सा एहसास होता है, जो हर काम कर तो रहा है, हंस भी रहा है पर धीरे-धीरे यादों की लकीरों से घिसता चला जा रहा है, मेरी गुडिया...