Monday, May 9, 2011

सचेतावस्था और जीवन

साथियों, आज मैं आप के साथ गौतम के जीवन में घटित, अपनी सबसे पसंदीदा घटना बांटना चाहती हूँ| मैं गौतम बुद्ध को प्रायः गौतम या सिद्धार्थ कह कर ही संबोधित करती हूँ|
 
 
 
सदधर्म मार्ग की प्राप्ति के दूसरे ही दिन, गौतम ने गाँव के सारे बच्चों को मिलने बुलाया! सभी बच्चे तैयार हो कर, समय से ही पीपल के नीचे एकत्रित हो गए| सभी कुछ-न-कुछ खाद्य पदार्थ उपहार स्वरुप लाये थे! सुजाता नारियल और ताड़-गुड की बट्टियां, नन्द बाला और सुभाष टोकरी भर मिट्ठा, एक प्रकार का संतरे जैसा फल लाये थे| गौतम ने सभी उपहार सहर्ष स्वीकार करलिये और सभी बच्चों के साथ मिलकर खाने लगे| सुजाता ने बीच मैं ही उठ कर घोषणा की  " आज हमारे गुरुदेव को सम्बोधि प्राप्त हो गयी  है, उन्होंने सदधर्म का मार्ग खोज लिया है|" सभी बच्चों ने आदर और प्रेम पुर्वक नमन कर, सदधर्म की शिक्षा के लिए अनुरोध किया|
 
गौतम ने बड़े प्यार से बच्चों को बैठाया और कहा की सदधर्म का मार्ग बहुत गूढ़ और सूक्ष्म है, लेकिन जो भी इस ओर अपना चित्त लगाएगा वह इसे समझ सकताहै और इसपर चल सकता है| उन्होंने कहा " बच्चों जब  तुम मिट्ठा छील कर खाते हो तो सचेत अवस्था के साथ भी खा खसकते  हो और बिना जागरूक रहे भी| सचेत हो कर मिट्ठा खाने का अर्थ है कि, जब तुम इसे खाओ तो भली भांति समझो और महसूस करो कि तुम क्या खा रहे हो| उसकी गंध और स्वाद को पूरी तरह आत्मसात कर लो| उसका छिलका उतारो तो तुम्हारा पूरा ध्यान छिलका उतरने में हो और जब एक-एक फांक खाओ तब उसके रंग, गंध और मिठास तो पूरी तरह अनुभव करो, उसके पीछे के जीवन का अनुमान लगाओ| मैंने इसकी हर फांक को पुर्ण जागरूकता  के साथ खाया है और पाया है कि यह कितनी मूल्यवान तथा अदभुत वस्तु है| यह मिट्ठा मेरे लिए एक निश्चित सत्य बनगया है, मैं इसे आजीवन नहीं भूल सकता| सचेत हो कर मिट्ठा खाने का यही अर्थ है|"
 
दोस्तों, सचेत अवस्था में जीवन यापन करने का अर्थ ही है की "अपने चित्त और शरीर को एक साथ मिला कर वर्त्तमान में जिया जाये"|  इसके विपरीत जीना, अचेत अवस्था में जीना है, जिसमें हम जानते नहीं की हमारे आस पास क्या और कैसे घट रहा है, कई बार हम अतीत और भविष्य में इतना खो जाते हैं की वर्त्तमान को नज़र अंदाज़ करदेते हैं| सचेतावस्था में जी कर ही हम अपने जीवन को मूल्यवान और अर्थपूर्ण बना सकते हैं|

25 comments:

जयकृष्ण राय तुषार said...

सुंदर और ज्ञानवर्धक पोस्ट कविता जी बधाई |

मनोज कुमार said...

आपके आलेख बहुत सारगर्भित होते हैं। आपके ब्लॉग पर आना एक सुखद अनुभव होता है।
इस विचारोत्तेजक आलेख के द्वारा आपने बहुत सार्थक और सही बात कहीं है। यदि हम अतीत या भविष्‍य के बारे में भयभीत हो जाएंगे तो वर्तमान में प्राप्‍त अवसरों को खो देंगे।

Shah Nawaz said...

बहुत ही बेहतरीन और प्रेरणापूर्ण... गौतम बुद्ध की सीख बहुत पसंद आई जी...

amit said...

बहूत अछा लेख लिखा हे वर्तमान में रहते हुए ही हमे सब कुछ करना चाहिए मेने ब्लॉग पर महत्मा बुध की ध्यान पदति के बारे में लिखा हे और आप उसको सीखें तो आपका जीवन सुखी हो जाएगा हो जाएगा http://www.bharatyogi.net/p/blog-page_10.html

देवेन्द्र पाण्डेय said...

सुंदर ढंग से समझाया गया प्रंसग।
सभी कहते हैं कि वर्तमान में जीयो...किंतु कवि, कल्पना में जीता है..वैज्ञानिक भी अपनी खोज के लिए सोंचता रहता है..वर्तमान में सचेत रहे तो कप्लनालोक में कैसे विचरे ?

Satish Saxena said...

मैं मनोज कुमार जी की बात से सहमत हूँ ...आपके लेख प्रभावी तथा उपयोगी हैं ! शुभकामनायें कविता जी !

Deepak Saini said...

अच्छा प्रसंग
शुभकामनाये

ZEAL said...

कई बार हम अतीत और भविष्य में इतना खो जाते हैं की वर्त्तमान को नज़र अंदाज़ करदेते हैं| सचेतावस्था में जी कर ही हम अपने जीवन को मूल्यवान और अर्थपूर्ण बना सकते हैं|

Very well said Kavita ji .

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Sunil Kumar said...

बहुत सारगर्भित, विचारोत्तेजक आलेख ...

Amrendra Nath Tripathi said...

सुबह ही पढ़ा था, पर तब सोचता रहा कि जिन बुद्ध ने कहा है “नदी में हैसे नहाओ कि नहीं में स्नान भी हो और हम तट पर भी हो” ( साक्षीभाव ) , तब भला वर्तमान से ऐसी संलग्नता की बात कैसे होगी??

सोचता रहा लेकिन बुद्ध का दूसरा वाक्य भी याद आया कि “ एक ही नदी में हम दो बार नहीं नहाते हैं” , इसमें एक बार के स्नान के प्रति संलग्नता भाव भरा हुआ है, यानी वर्तमान के प्रति पूर्ण समर्पण भी।

अच्छी लगी यह बोध कथा, और इसका आत्मीय सा प्रस्तुतीकरण। उम्मीद है कि आगे भी सुन्दर बोध-कथाओं से रू-ब-रू होने के अवसर आप स्वारा प्राप्त होंगे। आभार..!

Amrendra Nath Tripathi said...

सुधार:
* नदी में ‘ऐसे’ नहाओ...
** ...अवसर आप ‘द्वार’ प्राप्त होंगे।

Patali-The-Village said...

बहुत ही बेहतरीन और प्रेरणापूर्ण आलेख|धन्यवाद|

Anonymous said...

kya baat bahut sundar kavita ji kept up. achh laga apke blog ko visit karake blog par kuchh alag padhkar. sadhuwad achhi post ke liye.

Maheshwari kaneri said...

बहुत ही सुन्दरऔर सारगर्भित,आलेख ….धन्यवाद|

Vivek Jain said...

प्रेरणापूर्ण लेख
विवेक जैन vivj2000.blogspot.com

Kunwar Kusumesh said...

सारगर्भित और प्रेरक है..

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

बहुत सुंदर, वाकई ऐसी रचनाएं प्रेरणा देती हैं।

वैज्ञानिक प्रार्थना said...

आपके ब्लॉग पर आकर बहुत अच्छा लगा| आपकी भावाभिव्यक्ति बहुत सुन्दर है और सोच गहरी है! लेखन अपने आप में संवेदनशीलता का परिचायक है! शुभकामना और साधुवाद!

"कुछ लोग असाध्य समझी जाने वाली बीमारी से भी बच जाते हैं और इसके बाद वे लम्बा और सुखी जीवन जीते हैं, जबकि अन्य अनेक लोग साधारण सी समझी जाने वाली बीमारियों से भी नहीं लड़ पाते और असमय प्राण त्यागकर अपने परिवार को मझधार में छोड़ जाते हैं! आखिर ऐसा क्यों?"

"एक ही परिवार में, एक जैसा खाना खाने वाले, एक ही छत के नीचे निवास करने वाले और एक समान सुविधाओं और असुविधाओं में जीवन जीने वाले कुछ सदस्य अत्यन्त दुखी, अस्वस्थ, अप्रसन्न और तानवग्रस्त रहते हैं, उसी परिवार के दूसरे कुछ सदस्य उसी माहौल में पूरी तरह से प्रसन्न, स्वस्थ और खुश रहते हैं, जबकि कुछ या एक-दो सदस्य सामान्य या औसत जीवन जी रहे हैं| जो न कभी दुखी दिखते हैं, न कभी सुखी दिखते हैं! आखिर ऐसा क्यों?"

यदि इस प्रकार के सवालों के उत्तर जानने में आपको रूचि है तो कृपया "वैज्ञानिक प्रार्थना" ब्लॉग पर आपका स्वागत है?

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

बहुत ही मूल्‍यवान सलाह दी आपने। आभार।

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कौमार्य के प्रमाण पत्र की ज़रूरत किसे है?
बाबाजी, भ्रष्‍टाचार के सबसे बड़े सवाल की उपेक्षा क्‍यों?

केवल राम said...

सचेत अवस्था में जीवन यापन करने का अर्थ ही है की "अपने चित्त और शरीर को एक साथ मिला कर वर्त्तमान में जिया जाये"|

बिलकुल सही ...हम जीवन में इस अवस्था को प्राप्त कर पायें तो जीवन धन्य हो जाए ...आपका आभार

Arvind Mishra said...

जीवनोपयोगी उदबोधन

ZEAL said...

Where are you busy these days ? Hope things are fine at your end. Do take good care of yourself and keep in touch.

रमेश कुमार जैन उर्फ़ निर्भीक said...

मेरा बिना पानी पिए आज का उपवास है आप भी जाने क्यों मैंने यह व्रत किया है.

दिल्ली पुलिस का कोई खाकी वर्दी वाला मेरे मृतक शरीर को न छूने की कोशिश भी न करें. मैं नहीं मानता कि-तुम मेरे मृतक शरीर को छूने के भी लायक हो.आप भी उपरोक्त पत्र पढ़कर जाने की क्यों नहीं हैं पुलिस के अधिकारी मेरे मृतक शरीर को छूने के लायक?

मैं आपसे पत्र के माध्यम से वादा करता हूँ की अगर न्याय प्रक्रिया मेरा साथ देती है तब कम से कम 551लाख रूपये का राजस्व का सरकार को फायदा करवा सकता हूँ. मुझे किसी प्रकार का कोई ईनाम भी नहीं चाहिए.ऐसा ही एक पत्र दिल्ली के उच्च न्यायालय में लिखकर भेजा है. ज्यादा पढ़ने के लिए किल्क करके पढ़ें. मैं खाली हाथ आया और खाली हाथ लौट जाऊँगा.

मैंने अपनी पत्नी व उसके परिजनों के साथ ही दिल्ली पुलिस और न्याय व्यवस्था के अत्याचारों के विरोध में 20 मई 2011 से अन्न का त्याग किया हुआ है और 20 जून 2011 से केवल जल पीकर 28 जुलाई तक जैन धर्म की तपस्या करूँगा.जिसके कारण मोबाईल और लैंडलाइन फोन भी बंद रहेंगे. 23 जून से मौन व्रत भी शुरू होगा. आप दुआ करें कि-मेरी तपस्या पूरी हो

Yashwant R. B. Mathur said...

कल 06/09/2011 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
धन्यवाद!

सदा said...

प्रेरणात्‍मक प्रस्‍तुति ।